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कविता

निराला

शेषनाथ पांडेय


मैं उसी अँधेरे से आया हूँ
जहाँ उजाला जाने से कतराता है
जहाँ पलकों के सचेत होने से पहले
आँखों में पड़ जाती धूल
और ताबूत की कील से टपकता है खून

यह जाने बगैर -
कि थकान के बाद नींद बहुत मीठी होती है
चुनी मैंने थकान
यह समझे बगैर -
कि उजले दिन जरूर आएँगे का मतलब क्या होता होगा
चुना मैंने निराला

और मुझे लगा झिलमिला रहा है कोई
हज़ार जुगनुओं की तरह गाढ़े अँधेरों में
और तार-तार कर रहा है अच्छे दिन आने वाले विज्ञापनों को
और विडंबना देखिए कि भूख और आजादी का मेहनताना लेकर
उजले दिन आएँगे रचने वाले निराला
सालों से रोज हमें कुछ न कुछ दे रहे हैं
और करोड़ रूपए लेकर लिखी गई पंक्ति -
कि अच्छे दिन आने वाले हैं
हर रोज हमारी आत्मा को चिढ़ा रही है
चुभा रही है हमारी देह पर सुआ

बगावत में उठती और पराजय में पस्त होती
अपनी साँसों के बीच
मैंने मौलिक कल्पनाओं की आवाज सुनी है
उन साँसों को मैंने जिया है
जो होगी विजय, होगी विजय के नाद से पैदा हो रही थी
तब मैंने जाना
मैं उसी अँधेरे से आया हूँ
जहाँ जिंदा रहते है जुगनू
और जिंदा रहती है
निराला को पढ़ने की इच्छा।


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